एक पुराना उलाहना है — न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। गोया, सब कुछ भगवान भरोसे! भगवान का यह भरोसा बहुत पुख़्ता है। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि आज के समय में भगवान की टीआरपी लगातार बढ़त पर है।
यह ‘टीआरपी’ भी बला की चीज है! सुन रखा था कि यह जितनी ‘होती है’ उससे कहीं ज्यादा ‘मैनेज होती है’। आज पक्का भरोसा भी हो गया। लेकिन मेरे ऐसा कहने से यह लीड लेने की ग़लती मत कर बैठना कि आम क्रिटिक की तरह मैं भी एण्टरटेनमेण्ट-वार से शुरू कर मीडिया-वार तक की, न जाने कब की घिस-पिट चुकी, महा-बोरिंग नजीरें देने वाला हूँ। मेरी लाइन खालिस डिफ़रेण्ट है।
यों, यह भी सच है कि इसके सूत्र मैंने चौबीसों घण्टे खबरें परोसने में जुटी उस बिरादरी से ही चुराये हैं जिसकी हैसियत मानी तो गयी है इण्डियन जम्हूरियत की चौथी सबसे इलीट बिरादरी की लेकिन जो ख़ुद को इलीट नम्बर वन ठहराने की शौकीन है। और, ऐसा करने के लिए मैंने ठीक वैसी ही दिलेरी दिखायी है जैसी इस बिरादरी ने, अंग्रेजी डिक्शनरी के शब्द ‘मीडिया’ को अपने लिए रिजर्व करने में दिखाई है। हाँ, नाचीज इतना ख़ुद-गर्ज भी नहीं कि अपनी इस हरक़त के लिए आपसे अपनी पीठ ठोकने की कहे। जानता हूँ, वे लोग जिनका कलेजा मेरे इस तरह के बड़प्पन से सुलग उठता है अपने मुँह की चिमनी से इस फुसफुसाहट का धुँआ उगलने में देर नहीं करेंगे कि मैं अपनी पीठ के ठोके जाने से जो बच रहा हूँ वह मेरा बड़प्पन नहीं बल्कि फ़ियर है — सच में ‘ठोंक दिये जाने’ के जोखिम का फ़ियर। फिर भी लाचार हूँ क्योंकि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं कि कुछ पाने की जुगत में कुछ खो तक देने का जोखिम तो उठाना ही पड़ता है।
चलिए, बतलाता हूँ। मेरे जेहन में एक खबर आ रही है। हुआ यह कि बीते दिनों एक साधु ने एमपी के ह्यूमन राइट कमीशन में अपनी माँग पूरी कराने की जद्दो-जहद में अपना चमीटा क्या गाड़ा, अपनी साख की जुगत में जुटे आयोग के लिए अनोखा संकट खड़ा हो गया। साधु का अल्टिमेटम था कि उसे न्याय नहीं मिला तो वह सुसाइड कर लेगा। दरअसल, गोरखनाथ सम्प्रदाय के उस साधु ने कोई डेढ़ साल पहले आयोग के सामने शिकायत की थी कि एक महिला ने लिपट कर बरसों की उसकी तपस्या भंग कर दी थी! उसकी गुहार थी कि क्योंकि महिला की उस हरक़त से उसके ‘धर्म-पालन’ के फ़ण्डामेण्टल हक़ का हनन हुआ था, आयोग उसे इन्साफ़ दिलाए। अब यह बात कितनी भी अलहदा हो कि फ़ाइनल रिजल्ट अभी तक पब्लिक नहीं हुआ है लेकिन यह फ़ैक्ट तो अपनी जगह पर है ही कि असली मुद्दा खड़ा तो टीआरपी की बॉर्डर-लाइन पर था।
यों, जनरल कन्सैप्ट यही है कि टीआरपी महज टीवी चैनलों और उनमें दिखाये जाते प्रोग्राम्स की पसन्दगी या ना-पसन्दगी का पैमाना है लेकिन तनिक बारीक बात यह है कि इसे ‘पॉपुलेरिटी-असेसमेण्ट’ के स्केल की तरह भी देखा जाता है। भरोसा न होता हो तो कर्नाटक सीएम सदानन्द गौड़ा की इस हरक़त पर ग़ौर फ़रमायें — सुना है कि सूबे का सीएम बन जाने के कारण पालियामेण्ट की मेम्बरी छोड़ना उनका कम्पल्शन हो गया था। सो, पाँच महीनों के बाद उन्होंने रिजाइन किया भी। लेकिन, टीआरपी का खासा ख़याल रख कर। नहीं, कोई पहेली नहीं बुझा रहा हूँ। किस्सा कोताह यह कि लोक सभा की हिस्ट्री में एक नया पन्ना यह जुड़ गया कि पार्लियामेण्ट से रिजाइन करने से पहले गौड़ा ने ‘मुहूर्त-ए-रेजिग्नेशन’ निकलवाया और, तब, स्पीकर से टाइम माँगा। गोया, सीएम वाली पारी में पब्लिक के बीच अपनी टीआरपी को कायम रखने के लिए, पार्टी हाई कमान से भी ऊपर, भगवान की भी चिरौरी कर डाली।
यों, इस दुनिया में ऐसी-ऐसी हस्तियाँ भी हैं जो एचीव तो काफी कुछ करती हैं लेकिन इन एचीवमेण्ट्स को अपने नाम के साथ जोड़ कर दिखलाने के मुद्दे पर शायद शर्मीली साबित होती हैं। मेरा मतलब है, टीआरपी के प्रति क्वाइट इन-डिफ़रेण्ट रहती हैं। आप मेरी इस बात को नामंजूर करते दिख रहे हैं इसलिए कहना पड़ता है कि आपने शायद बकरे की चोरी के एक अजीबो-गरीब वाक़ये को भुला ही दिया है। खबर थी कि भोपाल से सटे इलाकों में बाघ के देखे जाने का आतंक फैला था। इससे निपटने के लिए सूबे के फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेण्ट ने चारा लगाया। चारा मतलब, पिंजरे में बँधा एक अदद बकरा। अगले दिन चारा तो नदारत था लेकिन उसे उड़ाने वाले का कोई पता-ठिकाना नहीं था। अरे नहीं, बाघ ने नहीं बल्कि किसी शातिर चोर ने पिंजरे से बकरा उड़ा डाला था। बस, इतना और जान लीजिए कि थाने में एफ़आईआर दर्ज हो चुकने के बाद भी वह करिश्माई बन्दा अभी तक ला-पता है!
वैसे, क्रिटिक की निगाह से देखें तो आपको भी दिख जायेगा कि देश का ज्यूडीशियल सिस्टम भी टीआरपी के फेर में पड़ चुका है। और, जब जस्टिस की बात आती है तब इस टीआरपी को थोड़ा-बहुत तो एक्सप्लेन भी करना ही होगा। ठीक समझा, न्याय के मन्दिर में इसकी असली मीनिंग साख ही हो सकती है। तो, पब्लिक क्रिटिसिज़्म का लहजा यह है कि अपनी साख को बढाने के लिए ज्यूडीशियरी से ऐसे फैसले तो आते ही रहते हैं जो ख़ुद ज्यूडीशियल सिस्टम की खोट्स को अण्डर-लाइन कर देते हैं। लेकिन इसका एक काउण्टर-प्रोडक्ट यह होता है कि सिस्टम की, अभी तक अन-डिस्प्यूटेड रही, इमेज डिस्टॉर्ट होती दिखती है। सो, इसकी फ़ेस-सेविंग भी जरूरी है। खबर है कि इसके लिए सिस्टम के एक स्तम्भ ने तुरुप का इक्का चला है। उसने कहा है कि किसी की निगाह में यदि जज भ्रष्ट हो गये हैं तो वह उनके नाम को पब्लिक करे। अब, ख़ुद ज्यूडीशियरी के अलावा किसी और के गुर्दे में इतना दम कहाँ कि किसी का नाम लेकर कोई दावा कर दे?
एक पुराना उलाहना है — न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। दरअसल, टीआरपी का खालिस खेल ही यह है कि यह जितनी ‘होती’ है उससे कहीं ज्यादा ‘मैनेज होती’ है। और, सब कुछ केवल भगवान के भरोसे! भगवान का यह भरोसा कितना पुख़्ता है इसे परखने के लिए एमपी की एक जिला अदालत से आये फैसले की वह अनोखी खबर पेशे ख़िदमत है जिसकी प्रेसी यह है कि अदालत ने चोरी के आरोपी को इस बिना पर जुर्म से बरी कर दिया कि उसने अदालत-परिसर में भगवान की मूर्ति के सामने खड़े होकर जज साहिब से यह कह दिया कि उसने चोरी नहीं की थी!
(२२ जनवरी २०१२)