रात तो बेकार गयी लेकिन सिर पर तपते सूरज ने ज्ञान-प्रकाश भर दिया। समझ गया कि कुछ सिर-फिरे ‘पब्लिक’ नाम का यह जो पाँचवाँ मिसिंग पाया खड़ा करने की जुर्रत कर रहे हैं, वह नये सिरे से स्टेबिलिटी देगा। पाँचों पाये एक साथ टिकें न टिकें, तीन पाये तो जमीन पर टिकेंगे ही टिकेंगे। Continue reading
April 2012 archive
Apr 28 2012
सिंघवी-विवाद : यह कैसी निजता?
इसमें दो मत नहीं कि निजत्व का अपना अस्तित्व है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन, सचाई यह भी है कि सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठा को अर्जित करने के लिए अपने वैयक्तिक जीवन के तथ्यों के पोस्टर तानने वाले निजत्व का यह विशेषाधिकार सदा-सर्वदा के लिए खो देते हैं। Continue reading
Apr 22 2012
तैयारी अपनी-अपनी
भारत में पहले कहा जाता था ‘जहाँ न जाये रवि, वहाँ जाये कवि’। लेकिन, सूरज की रोशनी और शायर की काबलियत का यह ईक्वेशन इण्डिया में अब खारिज हो गया है। अब प्रसिद्ध है कि ‘जहाँ न मिलती हो परमीशन, पाओ उसको करके ऑफ़र कमीशन’। Continue reading
Apr 15 2012
मुँह की खिलाने वाले
कमलनाथ ने गजब ढा दिया! कह बैठे कि एमपी में भ्रष्टाचार का जो नेटवर्क है वह सैण्ट्रल एड का ४० फ़ी-सदी तक डकार जाता है। गोया, बीजेपी को बेहतर रूलर होने का तमगा मिल गया। न कमलनाथ अकेले हैं और ना एमपी इकलौता सूबा। ऐसी लीडरी के होते कांग्रेस जीत चुकी जनरल इलेक्शन्स। Continue reading
Apr 08 2012
पत्थर की लकीर नहीं, स्लेट पर लिखी इबारत है जनादेश!
प्रजा-तन्त्र में मिला कोई भी जनादेश पत्थर पर उँकेरी अमिट इबारत नहीं होता। प्रजा-तन्त्र में जनादेश, दरअसल, महज स्लेट पर लिखी जाती एक इबारत भर होता है। ऐसी जो नियत काल में या कि नियति की किसी चाल में फिर-फिर लिखी-मिटायी जाती है; फिर-फिर मिटायी-लिखी जाती रहेगी। Continue reading
Apr 08 2012
नारी.नारी..नारी…!
बोफोर्स पर सफाई देना या तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दल-गत् या फिर सोनिया गांधी का अपना निहायत वैयक्तिक-पारिवारिक दायित्व है। उस सोनिया का, संयोग-वशात् ही जिसके उप-नाम से जुड़ गये ‘गांधी’ परिचय का (वंश-वृक्षावलि के हिसाब से) राष्ट्र-पिता मोहनदास करमचन्द गांधी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ना ही, भले ही संयोग-वशात् वह एक नारी हों, बोफोर्स की सफाई किसी ‘नारी’ को देनी है। Continue reading
Apr 08 2012
मरोड़ना कान गधैया के
लीकेज की एन्क्वायरियों ने ममला हॉच-पॉच कर दिया है। गोया, हिन्दी के उस उलाहने ने उनकी नींद उड़ाई थी जिसने बरसों पहले ही गठ-बन्धन की बे-चारगी को बड़ी नफ़ासत से पेश कर दिया था — गधे से नहीं जीते तो गधैया के कान मरोड़ डाले! Continue reading
Apr 08 2012
ताकि निहित स्वार्थ फिर भारी न पड़ जाएँ
बदले हुए मुखौटों के सहारे चली अपनी दूषित चालों से, इतिहास के छलिया, प्रजा-तन्त्र में निहित ताकत को कहीं फिर से अपनी काली छाया में न ढाँक लें इसलिए आयोडीन मिले नमक को खाने की बाध्यता के इतिहास की झलक देखना नि:सन्देह लाभ-दायी होगा। न्याय दिलाने की हमारी आज की व्यवस्था के सर्व-ग्रासी काले गड्ढों की बानगी भी हमारा समुचित मार्ग-दर्शन करेगी। Continue reading