प्रेसीडेण्ट के इलेक्शन को ही लें। यह पक्का है कि यह छींका जुलाई में टूटने वाला है। और, जब छींके के टूटने की श्योरिटी हो तो उसमें अपना नाम ढूँढ़ने वालों की लम्बी सी कतार तो तैयार होगी ही होगी। सो, वह भी तैयार है जिसमें हर वैरायटी के पॉलिटिकल प्राणी शामिल हैं। कर्णी सिंह जैसे आउट-डेटेड भी! Continue reading
May 2012 archive
May 23 2012
‘ना’ कहने का अधिकार
वर्षों तक पत्रकारिता के सक्रिय हिस्से-पुर्जे रहे आये सत्येन्द्र त्रिपाठी ने अपना एक आलेख प्रकाशनार्थ हमें भेजा है। विषय-वस्तु की सर्व-कालीन सम-सामयिकता के कारण ही, १० जनवरी १९९८ को राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हो चुकने के बाद भी, मैं इस आलेख को (किंचित् सम्पादन के साथ) यहाँ स्थान दे रहा हूँ। Continue reading
May 20 2012
बरदाश्त की हद
ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आये, एक बात साफ़ कर दूँ कि ख़यालों की मेरी टोकरी में, यूपी इलेक्शन में झेली इतनी बुरी हार की फ़ाइनल एनालिसेज़ के बाद, कांग्रेसी बेगम-हुजूर के आये उस रिएक्शन का आधा परसैण्ट भी नहीं था कि अनुशासन-हीनता कतई बरदास्त नहीं की जायेगी! Continue reading
May 19 2012
सुशासन की आधार-भूत शिला है जानकारी तक पहुँच का अधिकार
आदर्श लोक-तन्त्र की निरापदता की आधार-भूत शर्त यही है कि शासन-तन्त्र के कार्यकरण से सम्बन्धित किसी भी जानकारी तक पहुँच का अक्षुण्ण अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्राप्त हो। यह अधिकार जानकारी तक पहुँच का अधिकार लोक-तन्त्र के, यथार्थ में भी, नागरिकों द्वारा ही संचालित किये जाने को सुनिश्चित करता है। Continue reading
May 19 2012
अस्तित्व से आग्रहित अपरिवर्तन-शील प्राकृतिक नियम ही धर्म
‘धर्म’ को ‘सत्य’ से प्रतिरोपित करने मात्र से गीता का यह गूढ़तम भाव अपने सरलतम रूप में सामने आ जाता है कि जीव-भेद से धर्म-भेद नहीं उपजता। स्त्रियों की रजो-वृत्ति से जुड़ी सहज प्राकृतिक अवस्था का ‘मासिक-धर्म’ कहलाना धर्म के इस आदि भाव का सरलतम उदाहरण है। Continue reading
May 19 2012
सपना ही है स्याह-सर्द रात के बाद की गर्माहट
यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि हमारे सामने अभी भी यह साफ़ नहीं है कि, आज ही सही, हम उस त्रासदी की आँच में झुलस रहे पीड़ितों के लिए ऐसा कुछ क्या कर सकते हैं जो समर्थ रहते हुए भी हमने तब केवल इसलिए बिल्कुल नहीं किया कि हम प्रत्यक्ष-परोक्ष स्वार्थों से आकण्ठ घिरे हुए थे। Continue reading
May 15 2012
चहुँ ओर है रावण
आज तो चप्पे-चप्पे पर मौजूद है, रावण। पारिवारिक रिश्तों में, सामाजिक जिम्मेदारियों में, कला-संस्कृति-साहित्य में, शिक्षा में, कानून-व्यवस्था में। अब तो न्याय भी इसकी छाप लिये होने का आभास देता है। हमारी समस्या बस यही है कि सब कुछ समझते-बूझते हुए भी हम उसे अपने भीतर से एक-बारगी झटक नहीं पा रहे हैं। Continue reading
May 13 2012
जितने बीरबल, उतनी ही हाँडियाँ
लोकपाल की निरर्थकता पर अपने ख़यालात पब्लिक करके मिसाइल-मैन ने भी एक टेस्ट-फ़ायर किया है। इससे पहले वह कह चुके थे कि अपने कैण्डिडेचर पर समय आने पर ही मुँह खोलेंगे। गोया, रत-जगे का निचोड़ महज इतना है कि जितने बीरबल होंगे, हाँडियाँ भी तो उतनी ही होंगी! Continue reading
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