अधिनियम के व्यापक हित में है कि मेरे उठाये आज के सवाल पर आयोग की ओर से ही तथ्यों का कोई त्वरित स्पष्टीकरण आये। आयोग की चुप्पी का अर्थ होगा कि अधिनियम की सार्थकता म० प्र० राज्य सूचना आयोग के विद्यमान ढाँचे में सुरक्षित नहीं है। तब, महामहिम राज्यपाल महोदय पर संवैधानिक कदम उठाने का दबाव डालना पड़ेगा।
पिछले दिन मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयोग के हवाले से आयी एक खबर छपी। खबर भोपाल से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय दैनिक में छपी थी। इसमें आयोग द्वारा पारित किये गये एक फैसले की जानकारी थी।
यों, यह फैसला सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत् जानकारियों को देने से हीला-हवाला करते लोक सूचना अधिकारियों के साथ ही उनके नियोक्ता विभिन्न लोक प्राधिकारियों की नीयत और अधिनियम के प्रावधानों को ले कर उनके द्वारा की जा रही मन-मानी समीक्षाओं को तार-तार करने वाला है। फिर भी, खबर में आये पर्याप्त विस्तृत विवरण को पढ़ कर ऐसा नहीं लगा कि आयोग ने अपने इस फैसले में बद-नीयती रखने और अधिनियम के प्रावधानों की मन-मानी समीक्षा वाले लोक सूचना अधिकारियों को कोई ‘सबक’ देने जैसा कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष संकेत दिया हो।
जाहिर है, सवाल वही पुराना है — स्वयं आयोग द्वारा भी अधिनियम की मन-मानी समीक्षा ही तो नहीं की जा रही है? और, इस शाश्वत् सवाल का जवाब यदि आज भी ‘हाँ’ में ही है तो आयोग के अस्तित्व की इससे अधिक शाश्वत् नकारात्मकता और क्या हो सकती है?
जो खबर छपी है उसके हिसाब से आयोग ने अपने फैसले में यह तो ठहरा दिया है कि महापौर तथा निगम अध्यक्ष सार्वजनिक पद हैं इसलिए जो व्यक्ति यह पद ग्रहण करता है उसके द्वारा (लोक प्राधिकारी के दायित्व की तरह) किया गया कोई भी कृत्य व व्यय सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में आते हैं। इसलिए उनसे जुड़े दस्तावेज अधिनियम के अन्तर्गत् देय हैं। लेकिन उस खबर में इसका किंचित् भी संकेत नहीं है कि फैसले में माँगी गयी जानकारी आवेदक को देने से मना करने वाले लोक सूचना अधिकारी और उसके ऐसे दोष-पूर्ण विनिश्चय की पुष्टि करने वाले प्रथम अपीली अधिकारी पर आयोग द्वारा अधिनियम के प्रावधानों में निर्धारित आर्थिक और/अथवा प्रशासनिक शास्ति भी लगायी गयी है।
इस वैधानिक सचाई को समझने के लिए अधिनियम की वह असली ताकत समझनी होगी जो अधिनियम के अन्तर्गत् माँगी गयी जानकारी को देने से मना करने वाले अधिकारी और उसके नियोक्ता संस्थान को विवश करती है — अधिनियम में द्वि-स्तरीय अपीली व्यवस्था है। पहली अपीली व्यवस्था आन्तरिक है जो उसी लोक प्राधिकरण में प्रथम अपीली अधिकारी के रूप में नामांकित अधिकारी के समक्ष की जाती है जबकि दूसरी अपीली व्यवस्था बाह्य है जो सूचना आयोग के समक्ष की जाती है। किन्तु, दोनों ही अपीली व्यवस्थाओं में दोषी प्रमाणित हुए लोक सूचना अधिकारी को आर्थिक शास्ति और प्रशासनिक प्रताड़ना से मुक्ति और/अथवा शिथिलता देने का कोई विवेकाधिकार अपीली अधिकारी को प्राप्त नहीं है।
अखबार में छपी खबर में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि आयोग ने दोषी अधिकारी को समुचित रूप से दण्डित तथा प्रताड़ित करने के अपने बन्धन-कारी अधिनियमित दायित्व का पालन किया है!
यों, आयोग के प्रति आदर तथा सहानुभूति रखने वाले ‘बुद्धि-जीवी’ यह पलट सवाल उठा सकते हैं कि आयोग की कार्य-शैली पर यहाँ उठाया जा रहा सवाल महज परिकल्पना-जनित है। और, उनके इस पलट-सवाल में परिकल्पित सचाई भी हो सकती है। लेकिन तब, आम नागरिक के सामने यह एक दूसरी विकराल समस्या मुँह बाये खड़ी हो जाती है कि वह छपी खबर में छिपी सांकेतिक सचाई को ठोस वास्तविकता के आइने में कैसे दिखलाये? इसके लिए उसे आयोग के फैसले की अधिकृत नकल पानी होगी। और, आयोग की कार्य-शैली का मेरा अनुभव बतलाता है कि उसे पाने के लिए मुझे सालों साल की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। उस पर भी उसे ऐसा दिन देखने मिल सकता है कि चाही नकल देने से मना भी कर दिया जाये!
इसलिए यह अधिनियम के व्यापक हित में ही है कि मेरे उठाये आज के सवाल पर आयोग की ओर से ही तथ्यों का कोई त्वरित स्पष्टीकरण आये। आयोग की चुप्पी का अर्थ यही होगा कि अधिनियम की सार्थकता म० प्र० राज्य सूचना आयोग के विद्यमान ढाँचे में सुरक्षित नहीं है। और यदि, प्रकरण-दर-प्रकरण और साल-दर-साल यही प्रमाणित होता रहा तो आयोग के शुद्धि-करण की दिशा में कोई ठोस संवैधानिक कदम उठाने का दबाव महामहिम राज्यपाल महोदय पर डालना आरम्भ करना पड़ेगा।
(१६ सितम्बर २०१५)