२-३ दिसम्बर १९८४ की दरम्यानी रात को भोपाल के तब के यूनियन कार्बाइड कारखाने से मिथाइल आईसो सायनाइड गैस रिसी थी। और, इस रिसाव ने तब जो ताण्डव किया था, मौत का वैसा भयावह नाच दुनिया भर में दूसरा कभी नहीं हुआ। न पहले और ना बाद में! किन्तु क्या वह रिसाव एक दुर्घटना-मात्र थी? या फिर वह बाकायदा सोच-विचार कर बिछाये गये एक षडयन्त्र-भरे जाल की सहज-स्वाभाविक परिणति थी?
उस ‘हादसे’ के बारह साल बाद इन गम्भीर सवालों का जवाब ढूँढती २०१३ की मेरी यह पड़ताल उस समय दिल्ली से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘समय चेतना’ ने जनवरी १९९६ के अपने अंक में प्रकाशित की थी।
१९९६ के मेरे यह पुराने सवाल कोरोना-काल की आज की परिस्थिति में नये सिरे से गम्भीर और अपरिहार्य हो जाते हैं। क्योंकि, मेरा मानना है कि २४ साल पहले की मेरी वह पड़ताल सम्भवत: कोरोना-विस्फोट की समीक्षा में भी मदद करेगी —