क्या यह सम्भव है कि दो पक्षों के बीच चल रहे किसी वैधानिक/न्यायिक विवाद की सुनवाई किसी लोक अदालत में उस स्थिति में भी पूरी कर ली जाये (और फैसला भी सुना दिया जाये) जब उस विवाद के अपीलकर्ता ने अपने प्रकरण की सुनवाई उस लोक अदालत में करने की सहमति दी ही नहीं हो? Continue reading
Category: समाज_धर्म_न्याय_शिक्षा_राजनीति
Jun 11 2015
म० प्र० राज्य सूचना आयोग की खोखली सफाई
सजग और राष्ट्रीय जागरण मंच ने बीती ४ जून को उसके द्वारा अपनाई जा रही घोर अपारदर्शिता के विरोध में म० प्र० राज्य सूचना आयोग को जो ज्ञापन दिया था उससे आयोग में हड़कम्प मचने के संकेत आने लगे हैं। आयोग बैक पुट पर है। Continue reading
Jun 06 2015
अपनी कार्य-शैली को तत्काल प्रभाव से पार-दर्शी बनाये आयोग
स्वयं राज्य सूचना आयोग ही जब अधिनियम के अन्तर्गत् अपने बन्धनकारी दायित्व की उपेक्षा कर रहा है तो कोई यह अपेक्षा कैसे कर सकता है कि वह प्रदेश के विभिन्न लोक-प्राधिकरणों द्वारा अपने कार्यालयों में इसके पालन की निगरानी करने जैसी जिम्मेदारी का सचमुच ही निर्वाह करता होगा? Continue reading
May 31 2015
क्या संदिग्ध है सूचना-प्रदाय में सूचना आयुक्त की भूमिका?
स्वयं आयुक्त यह कहते हुए देखे गये हैं कि आदेश पारित करने के बाद से उनको अपनी जान का खतरा दिखने लगा है! सवाल यह है कि जो कोई भी धमकी दे रहा है वह सीधे-सीधे सूचना आयुक्त से इतना नाराज क्यों है? और, जानकारी माँग कर मामले को खोद निकालने वाले आवेदक को उसने बख्श क्यों दिया है? Continue reading
May 28 2015
केजरी ‘जंग’ : केवल अहं की लड़ाई नहीं
केजरीवाल एक नये किस्म की अराजकता के बीज बो रहे हैं। देश की सम्प्रभुता को चोटिल कर एक क्षत्रप सम्प्रभु सत्ता के निर्माण की एक नयी सोच दे रहे हैं। वे शायद इसे दिल्ली के बाहर भी विस्तार देने का इरादा रखते हैं। कहीं यह देश को एक नये किस्म के नक्सल-वाद की ओर बढ़ाने का संकेत तो नहीं है? Continue reading
May 20 2015
सूचना के अधिकार को तिलांजलि देता राज्य सूचना आयोग
आयोग की कार्य-शैली आरम्भ से ही दूषित रही है। इसके प्रामाणिक उदाहरण भी सामने आते रहे हैं। इन्हीं प्रमाणों में कुछ ‘माननीयों’ पर लगे ‘स्वार्थ-सिद्धि’ के अत्यन्त गम्भीर आरोप भी सामने आ चुके हैं। जिन पर आरोप लगे हैं, उनमें से अनेक के पास स्वयं को निर्दोष प्रमाणित करने लायक जमीन भी उपलब्ध नहीं है। Continue reading
Apr 23 2015
…और गजेन्द्र फन्दे पर झूल गया!
गजेन्द्र के उस तथाकथित सुसाइड-नोट की विषय-वस्तु को, तार्किक रूप से, मृतक की निजी व्यथा का ईमान-दार कथन नहीं माना जा सकता है। इस नोट में यह कहीं नहीं लिखा गया है कि वह आत्म-हत्या कर रहा है। और इसी से, यह बड़ा स्पष्ट संकेत निकलता है कि उक्त विषय-वस्तु किसी अन्य ‘विचारक’ के उपजाऊ मष्तिष्क की हाई-ब्रिड फसल थी। Continue reading
Apr 11 2015
यथार्थ-परक नजरिया पत्रकारिता को काल-जयी बनाता है
चुनौती-भरी प्रति-स्पर्धा में सालों-साल अपनी साख को अक्षुण्ण बनाये रखना हर दैनिक के बूते की बात नहीं है। नियमित अन्तराल से प्रकाशित होने वाली समाचार-पत्रिकाओं के लिए तो यह और भी दुश्कर है। ऐसा कर पाने के लिए दृष्टि का केवल निर्मल होना नहीं बल्कि उसका गहरा होना भी आवश्यक है। Continue reading