आयोग के गठन की निरर्थकता और दुर्दशा की द्विविधा का यथार्थ-परक निवारण करने के लिए यह खुला पत्र लिखने विवश हुआ हूँ ताकि, आयोग के मुखिया को यह सूचित हो कि उसके अपने ही कार्यालय में आयोग के साथ ही अधिनियम की भी सच्ची उपयोगिता को प्रमाणित करने की घड़ी एक बार फिर से आ खड़ी हुई है। Continue reading
Aug 01 2015
राज्य सूचना आयोग : क्या स्वयं आयोग के भीतर है अधिनियम की सही समझ?
अधिनियम के बन्धन-कारी पालन की दुर्भाग्य-जनक उपेक्षा के लिए क्या केवल विभिन्न सरकारी विभाग ही जिम्मेदार रहे हैं? क्या म० प्र० राज्य सूचना आयोग की अपनी भूमिका इस जिम्मेदारी से कतई मुक्त रही है? सम्भवत:, ऐसी ही किसी सामाजिक पीड़ा के मूल्यांकन के बाद इस पुरातन उक्ति ने जन्म लिया था कि ‘पर उपदेश, कुशल बहुतेरे!’ Continue reading
Jul 29 2015
सम्मान-प्रदर्शन या घोर अपमान?
दिवंगत् पूर्व राष्ट्रपति के पर्थिव शरीर के प्रति अपने सम्मान को प्रकट करने के लिए प्रधान मन्त्री मोदी विमान-तल समय से नहीं पहुँचे। और, सम्मान के उनके दिखावे की ऐसी इच्छा की पूर्ति के लिए इस महापुरुष के पर्थिव शरीर को, विमान से अपने उतारे जाने की, पर्याप्त प्रतीक्षा करनी पड़ी! Continue reading
Jul 13 2015
सूचना आयोग से पलट-सवाल
खबर है कि आयोग के एक फैसले में कहा गया है कि अधिकारियों को अधिनियम समझ नहीं है। ऐसे में एक पलट-सवाल करने की सूझी है — क्या आयोग के अपने ही अधिकारियों में अधिनियम की ठीक-ठीक समझ है? यह उलट-सवाल इसलिए कि मुझे, और आयोग की अन्तर्दशा से अच्छी तरह परिचितों को भी, इसके बारे में पर्याप्त आशंका है। Continue reading
Jul 08 2015
राज्य सूचना आयोग : लोक अदालत के नाम पर अधिनियम से ही जाल-साजी
लोक अदालत के नाम पर सूचना आयोग द्वारा केवल आवेदकों से ही नहीं बल्कि स्वयं सूचना का अधिकार अधिनियम से भी जाल-साजी की जा रही है। अधिनियम द्वारा निर्धारित सु-स्पष्ट वैधानिक प्रक्रिया को लोक अदालतों में नहीं, आयोग की नियमित अपीली सुनवाइयों के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है।
Jul 02 2015
यह कैसी लोक अदालत?
क्या यह सम्भव है कि दो पक्षों के बीच चल रहे किसी वैधानिक/न्यायिक विवाद की सुनवाई किसी लोक अदालत में उस स्थिति में भी पूरी कर ली जाये (और फैसला भी सुना दिया जाये) जब उस विवाद के अपीलकर्ता ने अपने प्रकरण की सुनवाई उस लोक अदालत में करने की सहमति दी ही नहीं हो? Continue reading
Jun 24 2015
तैयार रहिए, नये ‘तिवड़ा’ घोटाला के लिए!
खेसारी दाल (तिवड़ा) तो एक बहाना है। मध्य प्रदेश सरकार में से कोई भी यह सचाई उजागर करने को तैयार नहीं है कि इकार्डा को एक सुरक्षित जगह की तलाश थी क्योंकि मध्य-पूर्व की अस्थिरता से उसे अपना बोरिया-बिस्तर बाँधना पड़ा है। और, मध्य प्रदेश सरकार इसके लिए पट गयी। बिना सोचे-समझे। Continue reading
Jun 19 2015
अब दूध में डिटर्जेण्ट
खाद्य व पेय सामग्रियों के उत्पादकों-विक्रेताओं को कानूनी संरक्षण देने के लिए ‘सुरक्षित’ सीमा का एक नया, बाजार-वादी, मुहावरा गढ़ लिया गया है। इस और इस जैसे सारे मुहावरों का तकनीकी पेंच यह है कि ऐसे सारे उत्पादनों के अपने आप में अकेले अथवा सम्मिलित रूप से ग्रहण करने की ‘सुरक्षित’ सीमा क्या है, इसका उल्लेख कहीं नहीं होता है। Continue reading