सच तो केवल यह है कि मुग़ालते सम-दर्शी और सम-भावी होते हैं। किसी एक आदम-जात, गुट या पार्टी की बपौती नहीं है मुग़ालतों पर। यह तो खुली खेती है। मुफ़्त की जमीन पर और बिना धेला खरचा किये की जा सकने वाली। Continue reading
Jul 04 2010
झण्डे और डण्डे का उल्टा-पुल्टा
देश में झण्डे का परिचय पहली क्लास से ही शुरू होता है। अब तो, पास होना भी जरूरी नहीं रह गया है। रहता था तब भी कौन सा जरूरी था कि गरीब का बच्चा स्कूल जाये। खुद हिसाब लगाकर देख लीजिए। झण्डे का सही-साट लगाना कुल पापुलेशन में से कितनों को आता होगा? Continue reading
Jun 27 2010
किसकी-किसकी वापसी, कैसा-कैसा अर्थ!
शोर-शराबे भरे हुजूम से गाने के बोल छितरा रहे थे, “मोरा पिया घर आया।” मानो, कोई इतना इज्जत-दार मनई ‘घर’ आ रहा है! लेकिन, किसी और के या फिर अपने? सो, मन ही मन फ़ेहरिस्त टटोली। किस-किस के घर आने के राज-नैतिक मुद्दे ताजे थे? Continue reading
Jun 20 2010
कांग्रेसियों में फिर घुसा नया मियादी वायरस
अनपढ़-नादान भले समझ बैठें कि सचाई का घुस गया अनजान सा कोई वायरस इस विरासती पार्टी को कहीं इतिहास के सुपुर्द न कर दे। लेकिन एक सचाई तो यह भी है कि ईमान-सचाई तो नेहरू के त्रेतायी युग की शुरूआत से ही कांग्रेस से छिटकने लगी थी। Continue reading
Mar 30 2010
अग्नि-परीक्षा-२ : परीक्षा तो सूचना का अधिकार अधिनियम की भी
अधिनियम को लोक सूचना अधिकारी की वैधानिक जवाबदेही के अपने ब्रह्मास्त्र को सर्वोच्च न्यायालय में होने जा रही वैधानिक बहस में प्रतिष्ठित कराना ही होगा। यह उसकी बड़ी अग्नि-परीक्षा होगी क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं कर पाया तो अधिनियम अपनी भावना और उद्देश्य, दोनों ही, सदा के लिए गँवा बैठेगा। सूचना का अधिकार अधिनियम की इस प्रभाव-शीलता पर देश के सर्वोच्च न्यायालय में लगाया गया प्रश्न-चिन्ह केवल न्याय की भारतीय अवधारणा को नहीं अपितु अधिनियम को भी अग्नि-परीक्षा की कसौटी पर कसेगा। Continue reading
Mar 21 2010
अग्नि-परीक्षा-१ : परीक्षा में झुँकी न्याय की भारतीय अवधारणा
बलि की बेदी के खूँटे से साक्षात् न्याय की भारतीय अवधारणा ही बाँध दी गयी है। बिना परिणामों की गहराई पर विचार किये ही न्याय की भारतीय अवधारणा को अग्नि-परीक्षा में झौंक दिया गया है। परम्परा से कहीं बहुत गहरा है न्याय की भारतीय अवधारणा का आसन्न संकट। Continue reading
Jan 15 2010
लँगड़े झूठों पर खड़े खेसारी के ‘वैज्ञानिक’ सोच
हमारा सोच नैतिकता-सामाजिकता के निम्नतर स्तर पर पहुँच गया है। कोई अचरज नहीं कि खेसारी-समर्थक ‘वैज्ञानिक’ लॉबी को गलतियाँ करने से कोई गुरेज नहीं है; गुरेज है तो केवल इस पर कि ऐसी गलतियाँ कतई नहीं की जायें जिनसे ‘अधिकतम’ आर्थिक कमाई मिलने में कोई कसर रह जाती हो। Continue reading
Jan 05 2010
मतदाता का अधिकार : लोक-तन्त्र के अस्तित्व की गारण्टी
लोक-तन्त्र को अब, ‘मतदान के अधिकार’ की नहीं अपितु ‘मतदाता के अधिकार’ की स्थापना की दरकार है क्योंकि मतदाता का अधिकार बहुत व्यापक है जबकि मतदान का उसका अधिकार तो लोक-तन्त्र के इस यथार्थ और व्यापक अधिकार की प्राप्ति का एक साधन मात्र है। Continue reading